बढऩे लगी है संसदीय क्षेत्र में सक्रियता, 14 को सजेगा अब कोलारस और अशोकनगर में सिंधिया का दरबार
अशोक कोचेटा
लोकसभा चुनाव में पराजय के पश्चात लंबे समय तक अपने संसदीय क्षेत्र से दूरी बनाकर चल रहे पूर्व सांसद ज्योतिरादित्य सिंधिया की सक्रियता संसदीय क्षेत्र में फिर से बढऩे लगी है। धीरे-धीरे वह गुना संसदीय क्षेत्र के एक-एक विधानसभा क्षेत्रों में पहुंचकर अपनी धमाकेदार आमद दर्ज करा रहे हैं। इसके तहत उनके समर्थकों द्वारा प्रत्येक विधानसभा क्षेत्र में उनका शानदार स्वागत किया जा रहा है। स्वागत की शाही गरिमा बनाते हुए उसी अंदाज में सिंधिया द्वारा जनसमस्याओं को सुना जा रहा है। अभी तक वह बॉलीवुड फिल्मों के नायक की तरह चंदेरी, मुंगावली, पिछोर, खनियांधाना और शिवपुरी विधानसभा क्षेत्रों में अपनी उपस्थिति दर्ज करा चुके हैं। कोलारस और अशोकनगर विधानसभा क्षेत्रों में वह उसी चमक धमक के साथ 14 फरवरी को आ रहे हैं। अब सिर्फ गुना और बमौरी विधानसभा क्षेत्रों में उनके आगमन की प्रतीक्षा की जा रही है। सिंधिया की सक्रियता को उनके समर्थकों द्वारा यह कहकर भी प्रचारित किया जा रहा है कि वह राज परिवार के आभा मंडल से बाहर निकलकर अब एक सच्चे जननायक की भूमिका में हैं। पिछले कुछ वर्षो में उनके और जनता के बीच दरबारियों के कारण जो दूरियां बढ़ गई थी उसे वह अपनी नई भूमिका में पाटने का प्रयास करेंगे। पराजय के पश्चात शायद यह एक सबक होगा।
लोकतंत्र में सिंधिया की इस नई भूमिका का निश्चित तौर पर स्वागत होगा और इसके परिणाम भी कम से कम उनके लिए सार्थक सिद्ध होंगे। दिल्ली के चुनाव परिणामों ने बताया कि राजनीति में सूटवूट वाले नेता की तुलना में कॉमन मैन की भूमिका में राजनैतिज्ञ अधिक प्रभावशाली होता है और जनता को उसे नेता मानने में न तो कोई संकोच और न ही लज्जा का अनुभव होता है। यह सचमुच आश्चर्यजनक था कि क्षेत्र में निरंतर सक्रियता और लगातार विकास कार्य कराने में रूचि के बावजूद भी चार बार के सांसद ज्योतिरादित्य सिंधिया को 2019 के चुनाव में पराजय का सामना करना पड़ा। यह पराजय इसलिए भी अधिक कष्टदायक है कि संसदीय क्षेत्र के 8 विधानसभा क्षेत्रों में से 7 में उन्हें हार का सामना करना पड़ा। इस हार को यह कहकर नहीं झुठलाया जा सकता कि मोदी लहर में उन्हें हारना ही था। सिंधिया राजपरिवार के लिए यह बहाना पर्याप्त नहीं है। जब देशभर में इंदिरा गांधी का जादू चरम सीमा पर था और उनकी लोकप्रियता वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से भी अधिक थी तब भी सिंधिया राजपरिवार के सदस्यों ने बड़ी आसानी से अपने गढ़ को बचाने में सफलता प्राप्त की थी। 1971 में जब कांग्रेस की लहर में समस्त विरोधी दल नतमस्तक की मुद्रा में थे। तब गुना संसदीय क्षेत्र से जनसंघ प्रत्याशी के रूप में माधवराव सिंधिया आसानी से विजयी रहने में सफल रहे थे और राजमाता विजयाराजे सिंधिया ने ग्वालियर-शिवपुरी संसदीय क्षेत्र से जनसंघ उम्मीदवार पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को विजयी बनवाया था। 1977 में जब समूचे उत्तरभारत में इंदिरा विरोधी लहर कायम थी, तब कांग्रेस समर्थित उम्मीदवार के रूप में माधवराव सिंधिया गुना संसदीय क्षेत्र से 77 हजार से अधिक मतों से जीतकर सभी को चमत्कृत कर दिया था। 1984 के चुनाव में जब राजीव गांधी ने लोकसभा की 400 से अधिक सीटों पर इंदिरा गांधी की मौत से उपजी सहानुभूति के कारण जीत हांसिल की थी। तब राजमाता विजयाराजे सिंधिया आसानी से भाजपा उम्मीदवार के रूप में गुना से चुनाव जीत गई थीं। इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि मोदी लहर से इतर सिंधिया को अपनी हार का कारण खोजना पड़ेगा। ऐसा नहीं सिंधिया इस दिशा में सजग नहीं हैं और कारण यह खोजा गया कि उनकी हार में उनके सुविधाभोगी कार्यकर्ताओं की भूमिका है। उन्हें जितनी जमीनी मेहनत करनी चाहिए थी, उतनी उन्होंने नहीं की। जिसके कारण सिंधिया को पराजय का सामना करना पड़ा। इससे चुनाव परिणाम आने के बाद कार्यकर्ताओं से सिंधिया की नाराजगी बढ़ी। लेकिन बड़ा सवाल यह है कि यदि कार्यकर्ता ही सिंधिया परिवार को जिताते रहे हैं तो इसमें सिंधिया परिवार का गौरव क्या? सच्चाई यह है कि राजनीति में सिंधिया परिवार का अपना खुद का बजूद और प्रभाव है और उन्होंने आज के इस लज्जाहीन राजनीति के दौर में भी अपनी गरिमा बनाकर रखी है। सिंधिया राजपरिवार की जीत का श्रेय यदि किसी को दिया जा सकता है तो स्वयं उन्हें। यह पैमाना यदि माना जाए तो हार का श्रेय भी खुद ही ओढऩा होगा और आत्मावलोकन करना होगा कि आखिर यह हो कैसे गया। कोई भी राजनेता यदि पराजित होता है तो इसका सबसे पहला कारण यही हैं कि उसके और जनता के बीच निश्चित रूप से दूरियां इतनी अधिक बढ़ गई हैं कि तमाम अच्छाईयों के बावजूद भी मतदाता उसे वोट नहीं देता। मतदाता के मन में यह तीखी प्रतिक्रिया रहती है कि अपने चाटूकारों और दरबारियों के भरोसे ही चुनाव जीत लो। अपने पुर्नवास की तलाश कर रहे ज्योतिरादित्य सिंधिया को इसे समझना होगा। शिवपुरी में जब पहली बार शाही बॉम्बे कोठी से बाहर निकलकर सिंधिया ने सर्किट हाऊस में जनसमस्याएं सुनने का निर्णय लिया तो उनके इस फैसले की अच्छी प्रतिक्रिया रही। यह माना गया कि इस अंदाज से सिंधिया अधिक लोकतांत्रिक और जनता के नजदीक आने में सफल रहेंगे। वे लोग पीछे रहेंगे जो जनता और उनके बीच दूरियां बनाते हैं। लेकिन इस मायने में सिंधिया का शिवपुरी दौरा पैमाने पर उतना खरा नहीं उतरा जितनी अपेक्षा की जा रही थी। क्योंकि सिंधिया के स्वागत में वहीं राजसी ठाटवाट था वहीं अनुयायियों की घेराबंदी थी। वहीं जिंदाबाद के नारों की कर्णभेदी चिल्लाहट थी। सिंधिया की जनता के प्रति शिकायत का भाव भी जाने अनजाने उजागर हो रहा था। भारी स्वागत के बीच जनसुनवाई भी ढ़ाई से तीन घंटे देरी से शुरू हुई। इन्हें सिंधिया अपने अगले दौरे में और नई पारी में ठीक कर सकें तो यह न केवल क्षेत्र के लिए बल्कि उनके लिए भी अच्छा होगा। अंत में सिर्फ इतना ही कि हार के बावजूद भी सिंधिया अपने आप को दीनहीन और निरीह कतई नहीं माने। हार की पीड़ा निश्चित तौर पर कसकने वाली होती है। लेकिन इस पीड़ा से बाहर निकलने का जो सार्मथ्य दिखाते हैं वहीं वह हार को अपने गले का हार बनाने में सफल होते हैं।


