दिल्ली में शतरंज की चुनावी चौसर पर पैदल के हाथों मिली बजीर को मात

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अशोक कोचेटा 
दिल्ली दिल वालों की यह कहावत तो आप लोगों ने बहुत सुनी होगी। लेकिन दिल्ली विधानसभा के चुनाव परिणामों ने साबित किया कि दिल्ली दिल वालों के साथ-साथ दिमाग वालों की भी है। महज 9 माह पहले हुए लोकसभा चुनाव में दिल्ली के प्रबुद्ध मतदाताओं ने विधानसभा में सत्तारूढ़ आम आदमी पार्टी को नकारते हुए सभी 7 लोकसभा सीटों पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा को शानदार जीत दिलाई थी। दिल्ली की 70 विधानसभा में से भाजपा को 65 सीटों पर और शेष पांच सीटों पर कांग्रेस को बढ़त हांसिल हुई थी। जबकि आम आदमी पार्टी सभी 70 सीटों पर तीसरे स्थान पर रही थी। राष्ट्रवाद के मुद्दे पर केन्द्र में दिल्ली की पसंद की पहली पार्टी भाजपा और दूसरी कांग्रेस थी। आम आदमी पार्टी कहीं से कहीं तक नहीं थी। परंतु विधानसभा चुनाव में भाजपा ठगी की ठगी रह गई और आम आदमी पार्टी ने मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व में 88 प्रतिशत सीटों पर कब्जा कर 62 सीटें जीतीं। जबकि भाजपा को महज 8 सीटें और कांग्रेस का खाता शून्य से आगे नहीं बढ़ पाया। लोकसभा चुनाव में जहां दिल्ली की जनता ने राष्ट्रवाद के मुद्दे पर भाजपा को चुना। वहीं विधानसभा चुनाव में आप ने विकास के मुद्दे पर जीत हांसिल की। हालांकि भाजपा समर्थक आप की जीत को यह कहकर झुठलाने का प्रयास कर रहे हैं कि दिल्ली की जनता को देश से कुछ लेना देना नहीं है। वह तो अपने स्वार्थो में ही लिप्त है। उसे तो मुफ्त का बिजली पानी मिलता रहे, देश में भाड़ में जाए तो जाए। यह प्रतिक्रिया किसी भी मायने से उचित नहीं है और यह प्रतिक्रिया देने वालों की हिटलरी मानसिकता को ही उजागर करती है। 
दिल्ली की भाजपा की हार उसे इसलिए भी साल रही है क्योंकि वह दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी है और उसे शिकस्त सबसे छोटी सत्तारूढ़ पार्टी ने दी है। आम आदमी पार्टी का गठन महज 7 साल पहले हुआ और 7 साल में ही इस पार्टी ने कमाल कर दिखाया। लगातार तीन विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी ने अन्य दलों से अधिक सीटें प्राप्त की और अरविंद केजरीवाल लगातर तीसरी बार मुख्यमंत्री बनने में सफल हो गए हैं। भाजपा के लिए दिल्ली की हार इसलिए भी चिंतनीय है कि वह लोकसभा और एमसीडी में जीत के बाद भी 22 साल से विधानसभा में नहीं जीत पाई और अब उसे अगले पांच साल भी वनवास में रहना पडेगा। इसलिए भी भाजपा की हार चिंतनीय है क्योंकि लगातार दूसरी बार विधानसभा में उसका आंकड़ा डबल डिजिट में भी नहीं पहुंचा। उसकी हार इसलिए भी सोचनीय है कि उसके पास नरेंद्र मोदी और अमित शाह जैसे चमत्कारिक चेहरे हैं। जिनके बल पर भाजपा ने अकल्पनीय रूप से देश की सत्ता पर लगातार दूसरी बार कब्जा पाने में सफलता हांसिल की। इसके बाद भी दिल्ली विधानसभा चुनाव में उसके हाथ खाली के खाली रहे। आम आदमी पार्टी के विधानसभा चुनाव में हैट्रिक लगाने से भाजपा की रणनीति पर भी सवाल खड़े हो गए हैं। दिल्ली चुनाव में भाजपा ने राष्ट्रवाद और साम्प्रादायिक ध्रुवीकरण के आधार पर जीत हांसिल करने की रणनीति बनाई। अमित शाह ने अपनी 50 से अधिक रैलियों और सभा में यहीं मतदाताओं से आव्हान किया कि वह इतने गुस्से से ईवीएम का बटन दबाएं कि उसका करंट शाहीन बाग में भी देखने को मिले। उसे भरोसा था कि राष्ट्रवाद के मुद्दे के आधार पर जिस तरह से उसने केन्द्र में विजयश्री हांसिल की, ठीक उसी तरह से विधानसभा चुनाव में भी उसे जीत हांसिल हो जाएगी। यहीं कारण रहा कि भाजपा के प्रचार में सबसे बड़ा चेहरा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का रहा। भाजपा को भरोसा था कि जैसे ही मोदी प्रचार में उतरेंगे, फिजा बदल जाएगी। लेकिन यह भरोसा सही साबित नहीं हुआ। मोदी की दो सभाओं में एक तो अपेक्षा से कम भीड़ आई और दूसरे मोदी के आधा भाषण के बाद ही मतदाताओं का उठना शुरू हो गया था। जिससे चुनाव परिणाम की झलक मिलना शुरू हो गई थी। भाजपा ने 2015 के विधानसभा चुनाव में महज तीन सीटें जीती थीं। लेकिन उस खराब प्रदर्शन के बाद भी भाजपा ने कुछ सीखा नहीं था, जिसके परिणामस्वरूप 2020 में भी उसे शर्मनाक पराजय का सामना करना पड़ा। दिल्ली चुनाव में आम आदमी पार्टी के पास मजबूत विकास का मॉडल था। पिछले पांच सालों में केन्द्र सरकार में प्रतिरोध के बावजूद भी सत्तारूढ़ आम आदमी पार्टी ने आम जन के बुनियादी मुद्दे शिक्षा और स्वास्थ्य पर जमकर काम किया था। दिल्ली में आप ने सरकारी स्कूलों की दशा सुधारी थी और प्रायवेट स्कूलों की फीस नहीं बढऩे दी थी। दिल्ली में 200 से अधिक मोहल्ला क्लीनिक खोले गए थे। मुफ्त पानी, महिलाओं के लिए डीटीसी बस में फ्री यात्रा और 200 यूनिट तक मुफ्त बिजली से उसने मतदाताओं के एक बडे वर्ग को अपने पक्ष में किया। नेतृत्व के रूप में आम आदमी पार्टी के पास में मुख्यमंत्री केजरीवाल का यशस्वी नेतृत्व था। इसकी तुलना में भाजपा के पास कोई विकास मॉडल नहीं था और दिल्ली चुनाव में भाजपा ने जिस मनोज तिवारी को आगे किया, उनकी सार्वजनिक छवि बहुत अच्छी नहीं थी और मतदाताओं के बीच अपने खराब व्यवहार के कारण वह बहुत अलोकप्रिय थे। दिल्ली में अन्य सक्षम नेताओं को अलग कर मनोज तिवारी को आगे कर भाजपा ने स्वयं ही हार को ओढऩे का काम किया था। दिल्ली चुनाव में आम आदमी पार्टी की शानदार जीत इसलिए भी आसान हुई क्योंकि कांग्रेस बहुत कमजोर स्थिति में थी और कांग्रेस का वोट बैंक पूरी तरह खिसककर आम आदमी पार्टी के पाले में आ गया था। दिल्ली चुनाव में कांग्रेस की दीनता पूरी ताकत से उजागर हो गई। कांग्रेस के तीन उम्मीदवारों को छोड़कर सभी उम्मीदवारों की जमानते जप्त हो गर्इं। लेकिन अपने हश्र्रृ से ज्यादा कांग्रेस को भाजपा की हार से खुशी है। कांग्रेस पर यह कहावत सत्य साबित हो रही है कि भले ही हमारी दोनों आंखे फूट जाएं लेकिन विरोधी की कम से कम एक आंख तो फूटे। कुल मिलाकर दिल्ली चुनाव परिणाम कांग्रेस और भाजपा दोनों दलों के लिए न केवल चिंता का विषय है बल्कि चिंतनीय भी हैं। इन चुनावों से यदि देश के सबसे बड़े दल भाजपा और कांग्रेस ने सबक नहीं लिया तो आने वाले दिनों में उनकी पराजय की पटकथा ही लिखी जाएगी। 
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