राष्ट्रहित में अंतर्रात्मा की आवाज सुनकर लिया निर्णय या यह है भाजपा की तरफ खिड़की खोलने का प्रयास
शिवपुरी (अशोक कोचेटा)। कश्मीर में पिछले 70 वर्षों से लागू अनुच्छेद 370 हटाने के मुद्दे पर कांग्रेस के अभी तक मौजूद राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी और पार्टी में उनके सबसे निकटस्थ पूर्व मंत्री ज्योतिरादित्य ङ्क्षसंधिया एक दूसरे के आमने सामने आ गए हैं। कांग्रेस ने एक ओर जहां कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा देने वाले संविधान के अनुच्छेद 370 को हटाने के मोदी सरकार के निर्णय का विरोध किया। वहीं ज्योतिरादित्य सिंधिया ने पार्टी लाइन के विपरीत कांग्रेस और राहुल गांधी की राय से असहमति व्यक्त की थी।
राहुल गांधी ने मुखर स्वर में ट्वीट के जरिए मोदी सरकार के फैसले पर सवाल खड़े करते हुए कहा था कि राष्ट्रीय एकीकरण का मतलब जम्मू कश्मीर को तोडऩा, चुने हुए जनप्रतिनिधियों को जेल में बंद कर देना और संविधान का उल्लघंन करना नहीं है। राष्ट्र की सुरक्षा के लिए धारा 370 को हटाना ताकत का गलत इस्तेमाल है। लेकिन अभी तक राहुल की हां में हां मिलाते रहे पूर्व मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया ने धारा 370 को हटाने के मोदी सरकार के निर्णय का स्वागत करते हुए इसे राष्ट्रहित में बताया। इस तरह से ज्योतिरादित्य सिंधिया ने अपने 18 साल के राजनैतिक कैरियर में पहली बार पार्टी लाईन की अवेहलना करने का साहस दिखाया है। दिखाते भी क्यों नहीं राहुल गांधी का यह बचकाना बयान देखिए कि जनभावनाओं के आधार पर पार्टी नहीं चला करती। कांग्रेस में इस अंतरद्वंद और सिंधिया के विरोध के क्या मायने हैं? क्या यह उनका अंतरात्मा की आवाज पर लिया गया फैसला है या जनता की मंशा को भांपकर सिंधिया ने पार्टी के विपरीत अपनी राय रखी है अथवा कांग्रेस में उनकी लगातार हो रही उपेक्षा की यह प्रतिक्रिया मानी जाए। कारण चाहे कुछ भी हो लेकिन यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि धारा 370 को हटाने का समर्थन कर ज्योतिरादित्य सिंधिया ने राष्ट्रहित में एक बड़ा निर्णय लिया है। जिसके लिए वह बधाई के पात्र हैं और इसके दूरगामी परिणाम भविष्य में दिखाई पड़ सकते हैं। भारतीय राजनीति में अंतरात्मा की आवाज की गूंज वर्ष 1969 में सुनाई दी थी, जब देश में भले ही प्रधानमंत्री पद पर इंदिरा गांधी काबिज थी लेकिन संगठन पर कब्जा उनके विरोधी सिंडीकेट (पार्टी अध्यक्ष निजलिंगप्पा) का था, जिसने राष्ट्रपति पद के कांग्रेस उम्मीदवार के रूप में नीलम संजीव रेड्डी का नाम तय किया था। इंदिरा जी इस निर्णय से सहमत नहीं थी और उन्होंने अंतरात्मा की आवाज के आधार पर बीबी गिरि को निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में मैदान में उतार दिया। अपनी ही पार्टी के खिलाफ यह विद्रोह का सशक्त शंखनाद था और इसकी गूंज देश के एक कौने से दूसरे कौने तक इस कदर फैली कि कांग्रेस के अधिकृत उम्मीदवार नीलम संजीव रेड्डी को पराजय का सामना करना पड़ा और बीबी गिरि आश्चर्यजनक रूप से देश के राष्ट्रपति बनने में सफल रहे। यह उदाहरण बताता है कि यदि कोई पार्टी जनभावनाओं और अपने कार्यकर्ताओं एवं नेताओं का सम्मान नहीं करती तो उसे जलील होना पड़ता है। इसलिए सिंधिया के फैसले पर सवाल खड़ा करने से पहले राहुल गांधी को इस बात का भी जबाव देना चाहिए कि 1969 में उनकी दादी स्व. इंदिरा गांधी क्यों पार्टी लाईन के विपरीत गई थी? यह अंतरात्मा की आवाज की गूंज ही है कि सिंधिया ही नहीं मिलिंद देवड़ा, जनार्दन रेड्डी, अदिती सिंह, लक्ष्मण सिंह जैसे कई वरिष्ठ कांग्रेस नेताओं ने धारा 370 को हटाने का समर्थन किया है। सिंधिया ने लोकसभा चुनाव में अपनी पराजय के पश्चात कहा था कि वह जनता के इस फैसले को स्वीकार करते हैं और अपनी हार का वह आत्मावलोकन भी करेंगे। धारा 370 के समर्थन करने के सिंधिया के फैसले से यह भी आभास होता है कि यह उनके आत्मावलोकन से निकला निष्कर्ष है। सिंधिया वक्त की नव्ज को अब पहचानने लगे हैं। उन्हें प्रदेश में और ग्वालियर संभाग में राजनीति करनी है और इतना तो उन्हें समझ आ गया होगा कि धारा 370 के हटाने का समर्थन करना राजनैतिक रूप से एक तरह से अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारने के समान ही है। हर बात में राहुल गांधी का अंधानुकरण करने का परिणाम वह स्वयं भुगत चुके हैं और उनकी हार में यह भी एक प्रमुख कारण है। ग्वालियर संभाग मेें सिंधिया परिवार की मजबूत जड़ों का यह भी एक प्रमुख कारण है कि सिंधिया परिवार कभी भी मुस्लिम तुष्टीकरण की राजनीति में नहीं पड़ा। उनकी दादी स्व. राजमाता विजयाराजे सिंधिया ने अपने राजनैतिक जीवनकाल के पूर्वार्ध में हिन्दू महासभा को पल्लिवत और पुष्पित किया था। संभाग में सिंधिया परिवार की मजबूती का यह एक प्रमुख कारण था। ज्योतिरादित्य सिंधिया को यह बात भी ध्यान में होगी कि उनके स्व. पिता माधवराव सिंधिया ने जनसंघ छोड़कर कांग्रेस में शामिल होने का निर्णय भी जनभावना के आधार पर इसलिए लिया था क्योंकि उनके विचार से जनसंघ देश की मुख्य धारा की पार्टी नही थी और इस कारण उनके जनसंघ में बने रहने से उनका क्षेत्र विकास की मुख्य धारा से पिछड़ रहा था। सिंधिया परिवार के सदस्य कहते भी हैं कि वे राजनीति से समाजसेवा और अपने क्षेत्र की सेवा की भावना से आए हंै और ऐसे में ऐसी पार्टी में बने रहने का क्या औचित्य जिससे क्षेत्रीय विकास लगातार अवरूद्ध हो रहा हो। उस समय कांग्रेस देश की मुख्य धारा से जुडी हुई थी और अपने क्षेत्र को मुख्य धारा से जोडऩे के लिए स्व. माधवराव सिंधिया ने कांग्रेस में शामिल होने का निर्णय लिया था और जिसके अच्छे परिणाम भी बाद में देखने को मिले थे। लेकिन अब बक्त बदल गया है। सिंधिया को भी समझ में आ गया होगा कि आज भाजपा देश की मुख्य धारा से जुड़ी हुई है और कांग्रेस से जितनी जल्दी से जल्दी उनका छुटकारा हो जाए, वह न केवल उनके हित में है बल्कि इस क्षेत्र और प्रदेश की जनता के हित में भी है। कांग्रेस लगातार यथास्थितिवादी बनी हुई है। पार्टी में कोई नया नेतृत्व विकसित नहीं हुआ है आज भी राजनीति में अप्रसांगिक हो चुके नेता पार्टी की कमान संभाल रहे हैं। इससे बढ़कर हास्यास्पद बात क्या होगी कि जब पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष की बात चलती है तो वयोवृद्ध मोतीलाल बोरा का नाम भी सामने आ जाता है। ऐसे अनेक अवधि बाहर हो चुके नेता नेहरू गांधी परिवार के नाक और कान बने हुए हैं तथा उनके कारण गांधी परिवार के मुखिया वस्तुस्थिति को जानने का प्रयास नहीं कर रहे हैं। सिंधिया इसका नुकसान देख चुके हैं। विकास में उनकी रूचि है। 18 साल से वह राजनीति में हैं और गुना संसदीय क्षेत्र से वह लगातार चुनाव जीत चुके हैं, लेकिन उनके राजनीति में आने के बाद केेंद्र की सत्ता से कांग्रेस बाहर है। इस कारण वह अपने संसदीय क्षेत्र की जनता के लिए जितना विकास करना चाहिए चाहते हुए भी नहीं कर पा रहे हैं और अब कांग्रेस जिस तरह से बीज बो रही है उससे 150 साल पुरानी यह पार्टी अब खत्म होने की कगार पर है। कांग्रेस में जिस तरह का नेतृत्व गांधी परिवार के इर्दगिर्द है उससे सिंधिया अपने राजनैतिक भविष्य के प्रति चिंतित हो सकते हैं। जहां तक राजनैतिक नफा और नुकसान का सवाल है, इस कसौटी पर भी धारा 370 को हटाने का समर्थन करना सिंधिया का निर्णय खरा उतरता है। सिंधिया को राहुल गांधी का सबसे निकटस्थ बताया जाता है। कांग्रेस ने सिंधिया का भरपूर दोहन भी किया है, जिसका फायदा कांग्रेस को मिला है। लेकिन उस अनुपात में सवाल यह है कि सिंधिया को क्या मिला। आज भी सिंधिया कांग्रेस में अपनी महत्वपूर्ण पहचान के लिए तरस रहे हैं। प्रदेश में पिछले 10 वर्षो से वह पार्टी हित में जबरदस्त संघर्ष कर रहे हैं। 2018 के चुनाव के दौरान तो यह तय लग रहा था कि या तो उन्हें प्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया जाएगा अथवा पार्टी उन्हें मुख्यमंत्री उम्मीदवार घोषित कर चुनाव मैदान में उतरेगी। लेकिन कांग्रेस आलाकमान के आसपास एकजुट कॉकस उनकी उन्नति में लगातार आड़े आता रहा। प्रदेश अध्यक्ष के लिए पहले कमलनाथ के नाम की घोषणा कर दी गई और यह माहौल बनाया गया कि सरकार आने पर मुख्यमंत्री तो सिंधिया ही बनेंगे और सिंधिया तथा उनके समर्थक इस झांसे में लगातार बने भी रहे। भाजपा ने भी यह मानकर चुनाव लड़ा कि कांग्रेस की ओर से सेनापति ज्योतिरादित्य सिंधिया है इसलिए भाजपा ने अपने प्रचार अभियान में किसी ओर पर नहीं बल्कि सिंधिया पर ताबड़तोड़ अटैक किए। लेकिन सिंधिया पूरी ताकत से कांग्रेस को जिताने के लिए प्रदेश में घूमते रहे। जिसका परिणाम यह हुआ कि 15 साल से सत्ता से बाहर चल रही कांग्रेस बहुमत के नजदीक पहुंचने में सफल रही। इसके बाद प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने की बात चली तो मुकाबला कमलनाथ और सिंधिया के बीच था। ठीक उसी तरह जिस तरह से राजस्थान में अशोक गहलोत और सचिन पायलेट मुख्यमंत्री की कुर्सी के लिए संघर्ष कर रहे थे। राजस्थान में भले ही अशोक गहलोत मुख्यमंत्री बनने में सफल रहे। परंतु सचिन पायलेट का प्रदेश अध्यक्ष का पद भी बरकरार रहा और वह कैबिनेट मंत्री भी बन गए। लेकिन मध्यप्रदेश में कांग्रेस ने सिंधिया को न तो मुख्यमंत्री, न ही पार्टी अध्यक्ष और न ही कैबिनेट मंत्री पद देने की पेशकश की। भले ही सिंधिया शालीनतावश अपने साथ हुए अन्याय को कह न पाए। लेकिन जनता ने खासकर उनके निर्वाचन क्षेत्र के मतदाताओं ने इसे महसूस किया और इसकी प्रतिक्रिया भी उनके खिलाफ गई और महज इसी कारण कि कांग्रेस में सिंधिया की कोई अहमियत नहीं है। कांग्रेस का भी कोई भविष्य नहीं है और उन्हें जिताने से फायदा क्या होगा इस सोच से चुनाव में सिंधिया को पराजय का सामना करना पड़ा। गुना से लगातार चार बार जीत रहे सिंधिया के लिए 2019 की पराजय का यह एक महत्वपूर्ण कारण है जिसे सिंधिया को महसूस करना चाहिए। धारा 370 को हटाने के मोदी सरकार के निर्णय का समर्थन कर सिंधिया ने इशारा कर दिया है कि अब वह पार्टी आलाकमान की कठपुतली नहीं रहेंगे और राजनीति में अब उन्हें अपना अच्छा बुरा महसूस करने की समझ आ गई है। उन्हें यह भी याद रखना चाहिए कि राजनीति में पूछ परख नरेंद्र मोदी और अमित शाह जैसे साहसी नेताओं की ही होती है और राजनीति के नए पाठ में उन्हें अपनी सियासत में अब इस तत्व को प्रमुखता से स्थान देना होगा।


